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पार्श्वनाथ भगवान की संक्षिप्त जीवनी 

लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व पौष कृष्ण एकादशी के दिन जैन धर्म के 23वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणासी में हुआ था | उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था | राजा अश्वसेन वाराणासी के राजा थे | जैन पुरानो के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पुरे नौ जन्म लेने पड़े थे | पूर्व जन्म के संचित पुण्यो और दसवे जन्म के तप के फलत: ही वे 23वे तीर्थंकर बने |

पुराणों के अनुसार पहले जन्म में वह मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने ,दुसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी ,तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता ,चौथे जन्म में रश्मिवेग नामक राजा ,पांचवे जन्म में देव ,छठे जन्म में वज्रनाभि नामक चक्रवती सम्राट ,सातवे जन्म में देवता ,आठवे जन्म में आनन्द नामक राजा ,नौवे जन्म में स्वर्ग के राजा इंद्र और दसवे जन्म में तीर्थंकर बने |


 
दिगम्बर धर्म के मतावलम्बियो के अनुसार पार्श्वनाथ बाल ब्रह्माचारी थे जबकि श्वेताम्बर मतावलम्बियो का एक धड़ा उनकी बात का समर्थन करता है लेकिन दूसरा धड़ा उन्हें विवाहित मानता है |इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि ,माता पिता के नाम आदि के बारे में भी मतभेद बताते है |

बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव और ठाठ बाट में व्यतीत हुआ | जब उनकी उम्र सोलह वरः की हुयी और एक वह एक दिन वन भ्रमण कर रहे थे तभी उनकी दृष्टि एक तपस्वी पर पड़ी ,जो कुल्हाड़ी से एक वृक्ष पर प्रहार कर रहा था | यह दृश्य देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले “ठहरो ! उन निरीह जीवो को मत मारो ” |

उस तपस्वी का नाम महीपाल था | अपनी पत्नी की मृत्यु के दुःख में वह साधू बन गया था | वह क्रोध से पार्श्वनाथ की ओर पलता और कहा “किसे मार रहा हु मै ? देखते नही , मै तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हु |” पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा “लेकिन उस वृक्ष पर नाग नागिन का जोड़ा है “| महीपाल ने तिरस्कारपूर्ण स्वर में कहा “तू क्या त्रिकालदर्शी है लडके….” और पुन: वृक्ष पर वार करने लगा |

तभी वृक्ष के चिर तने से छटपताया ,रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकला | एक बार तो क्रोधित महीपाल उन्हें देखकर काँप उठा लेकिन अगले ही पल वह हंसने लगा | तभी पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को णमोकार मन्त्र सुनाया , जिससे उनकी मृत्यु की पीड़ा शांत हो गयी और अगले जन्म में वे नाग जाति के इंद्र इंद्राणी धर्नेन्द्र और पद्मावती बने और महीपाल मरनोपरांत सम्बर नामक दुष्ट देव के रूप में जन्मा |

पार्श्वान्थ को इस घटना से संसार के जीवन मृत्यु से विरक्ति हो गयी | उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी जिससे जीवन मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके | कुछ वर्ष बीत गये | जब वह 30 वर्ष के हुए तो उनके जन्मदिवस पर अनेक राजाओ ने उपहार भेजे |अयोध्या का दूत उपहार देने लगा तो पार्श्वनाथ ने उससे अयोध्या के वैभव के बारे में पूछा |

उसने कहा “जिस नगरी में ऋषभदेव ,आजितनाथ ,सुमितनाथ और अनंतनाथ जैसे पांच तीर्थंकरो ने जन्म लिया तो उसकी महिमा के क्या कहने | वहा तो पग पग पर पूण्य बिखरा पड़ा है ”

इतना सुनते ही भगवान पार्श्वनाथ को एकाएक अपने पूर्व नौ जन्मो स्मरण हो आया और वो सोचने लगे कि इतने जन्म उन्होंने यु ही गंवा दिए और अब उन्हें आत्मकल्याण का उपाय करना चाहिए और उन्होंने उसी समय मुनि दीक्षा ली और विभिन्न वनों में तप करने लगे |

चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्हें कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर बन गये | वह सौ वर्ष तक जीवित रहे | तीर्थंकर बनने के बाद का उनका जीवन जैन धर्म के प्रचार प्रसार में गुजरा और फिर श्रवण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ |